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कठिनाइयां
कठिनाइयों का कारण और उनकी उपयोगिता
कठिनाइयां हमेशा किसी-न-किसी प्रतिरोध के कारण आती हैं, सत्ता का कोई भाग या उसके कुछ भाग अपने ऊपर रखे गये शक्ति, चेतना और प्रकाश को ग्रहण करने से इन्कार करते हैं ओर भागवत प्रभाव के विरुद्ध विद्रोह करते हैं । ऐसा बहुत विरल होता है कि मनुष्य इन कठिनाइयों में से किसी-न-किसी का सामना किये बिना पूरी तरह से 'भागवत इच्छा' के प्रति समर्पण कर दे । लेकिन अपनी अभीप्सा को स्थिर बनाये रखना और अपने-आपको पूरी सच्ची निष्कपटता के साथ देखना सभी बाधाओं पर विजय पाने का निश्चित उपाय है ।
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निश्चय ही ये सब कठिनाइयां कहीं पर प्रतिरोध के कारण आती हैं, किसी ऐसी चीज के कारण जो रूपान्तर के कार्य का विरोध करती है ।
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परिस्थितियां हमेशा छिपी हुई दुर्बलताओं को प्रकट करने के लिए आती हैं ताकि उन्हें जीता जा सके ।
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कठिनाइयां हमारे पास ऐकान्तिक रूप से इसीलिए भेजी जाती हैं ताकि उपलब्धि अधिक पूर्ण हो ।
हर बार जब हम किसी चीज को उपलब्ध करने की कोशिश करें और हमें किसी प्रतिरोध या बाधा या ऐसी असफलता का सामना करना पड़े--जो असफलता दीखती है--तो हमें यह जान लेना चाहिये, हमें यह कभी न भूलना चाहिये कि ऐकान्तिक रूप से पूरी तरह यह इसलिए है कि उपलब्धि अधिक पूर्ण हो ।
तो यह घिघियाने, हिम्मत हारने, या बेचैनी अनुभव करने की आदत या अपने-आपको बुरा-भला कहने और यह कहने की आदत कि ''लो,
२४१ मैंने फिर से भूल कर डाली''--यह सब निरी मूर्खता है ।
अपने-आपसे बस इतना ही कहो : ''हम नहीं जानते कि चीजें कैसे करनी चाहियें । वे हमारे लिए की जा रही हैं, जो होना हो हो ।'' और अगर हम देख पाते कि हर एक कठिनाई, भूल, असफलता और रुकावट--ये सब किसी हद तक हमारी सहायता करने के लिए ही हैं , उपलब्धि अधिक पूर्ण बनाने के लिए हैं ।
एक बार तुम यह जान लो तो सब कुछ आसान हो जाता है । ६ अक्तुबर, १९५८
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आघात और परीक्षाएं हमेशा भागवत कृपा के रूप में हमें हमारी सत्ता में वे बिन्दु दिखाने आती हैं जहां हममें कमी है और जिन गतिविधियों में हम अपनी मानसिक सत्ता और प्राणिक सत्ता की चिल्ल-पों सुनकर अपनी अन्तरात्मा की ओर पीठ कर लेते हैं ।
अगर हम इन आध्यात्मिक आघातों को उचित नम्रता के साथ स्वीकारना जानें तो हम निश्चित ही एक छलांग में काफी दूरी पार कर लेंगे । २२ फरवरी, १९६५
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इस बात पर विश्वास रखी कि जो कुछ घटता है वह हमें ठीक वही पाठ देने के लिए होता है जिसकी हमें जरूरत है, और अगर हम ''साधना'' में सच्चे हैं तो पाठ को आनन्द और कृतज्ञता के साथ स्वीकार करना चाहिये ।
जो दिव्य जीवन के लिए अभीप्सा करता है उसके लिए अन्धी ओर अज्ञ मानवजाति के कर्मों का क्या मूल्य हो सकता है ? १८ जनवरी, १९६७
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अगर सचमुच तुम भगवान् से प्रेम करते हो तो इसे अचंचल और शान्त रहकर प्रमाणित करो । हर एक के जीवन में जो कुछ आता है,
२४२ भगवान् के यहां से पाठ सिखाने के लिए आता है और अगर हम उसे उचित भाव से लें तो हम तेजी से प्रगति करते हैं ।
ऐसा करने की कोशिश करो । १३ दिसम्बर, १९६७
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कठिनाइयां इसलिए आती हैं कि तुम्हारे अन्दर सम्भावनाएं हैं । अगर जीवन में सब कुछ आसान होता तो जीवन शून्य होता । चूंकि तुम्हारे रास्ते में कठिनाइयां आती हैं तो इससे पता चलता है कि तुम्हारे अन्दर सम्भावनाएं है । डरो मत । २२ फरवरी, १९६८
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तुम ''क'' से मेरी ओर से कह सकते हो कि उसे इस अप्रिय दीखने वाली परिस्थिति को इस बात के प्रमाण के रूप में लेना चाहिये कि 'प्रभु' मानते हैं कि वह आध्यात्मिक जीवन के लिए तैयार है और उसे अब किसी बाह्य या भौतिक चीज के साथ आसक्त न रहना चाहिये ।
अगर वह चीजों को इस तरह लेगा तो वह जल्दी ही यह अनुभव करेगा कि उसका समस्त दुःख चला गया है ।
मेरा मतलब यह था कि उसके बारे में चिन्ता न करो । उसके पास जो कुछ आये उसे वह व्यग्र या दुःखी हुए बिना, उत्तेजित या व्याकुल हुए बिना स्वीकार कर ले ।
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अभीप्सा करने वाले ओर ''साधक'' के लिए, उसके जीवन में जो कुछ आता है, परम सत्य को जानने और उसे जीने में सहायता देने के लिए आता है । विश्वास रखो, तुम विजयी होओगे । और इसका अर्थ होगा प्रगति का एक बहुत बड़ा कदम ।
प्रेम और आशीर्वाद सहित । १२ सितम्बर, १९६९ *
२४१ कठिनाइयां हमेशा हमसे प्रगति करवाने के लिए आती हैं । कठिनाई जितनी बड़ी होगी, प्रगति उतनी ही बड़ी हो सकती है ।
विश्वास रखो और सह जाओ ।
प्रेम और आशीर्वाद के साथ । नवम्बर १९६९
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'विजय' से पहले की घड़ियां बहुधा सबसे कठिन होती हैं ।
व्यक्ति के समर्पण में अन्तिम प्रतिरोध ही, कभी-कभी ऐसे जो बिलकुल नगण्य होते हैं, सबसे अधिक दुराग्रही होते हैं और उन पर विजय पाना सबसे अधिक कठिन होता है ।
लेकिन हम उनसे भी ज्यादा हठी हों तो संघर्ष का विजयी अन्त निश्चित है ।
कठिनाइयों के बारे में कभी शिकायत न करो
जो पूर्णता के मार्ग पर आगे बढ़ना चाहता है उसे मार्ग की कठिनाइयों के बारे में कभी शिकायत न करनी चाहिये क्योंकि हर कठिनाई एक नयी प्रगति का अवसर है । शिकायत करना कमजोरी और सचाई के अभाव का चिहन है ।
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जहां दोनों छोर मिलते हैं वहां किसी भी चीज के बारे में शिकायत करना, अपने बारे में, औरों के बारे में या परिस्थितियों के बारे में शिकायत करना दुर्बलता और अपनी परम 'आत्मा' के प्रति सचाई का अभाव है ।
दोनों छोर जीवन की परिस्थितियों के प्रति तुम्हारी वृत्ति पर पड़ने वाले प्रभाव में मिलते हैं : सभी वस्तुओं में अभिव्यक्त 'भागवत इच्छा' के प्रति पूर्ण समर्पण और परम शक्ति की चेतना जो अपनी सर्वशक्तिमान् धारणा के अनुसार वस्तुओं को व्यवस्थित करती है । दोनों ही अवस्थाओं
२४४ में शिकायत के लिए कोई जगह नहीं है : अगर तुम पूरी तरह भगवान् को समर्पित हो तो तुम उनकी 'दिव्य इच्छा' के बारे में शिकायत कर ही कैसे सकते हो, वह चाहे किसी भी रूप में क्यों न आये ? दूसरी ओर अगर तुम जगत् को जीवन के परम सत्य के अनुसार व्यवस्थित करने की शक्ति का अनुभव करते हो तो तुम जीवन की ऐसी अवस्था के विरुद्ध कैसे शिकायत कर सकते हो क्योंकि उसे बदलना तुम्हारे ऊपर निर्भर है ।
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कभी मत वुड़बुड़ाओ । जब तुम बुड्बुड़ाते हो तो तुम्हारे अन्दर सब तरह की शक्तियां घुस जाती हैं और तुम्हें नीचे खींच लेती हैं । मुस्कुराते रहो । मैं हमेशा मजाक करती हुई दीखती हूं पर यह केवल मजाक नहीं है । यह चैत्य से उत्पन्न विश्वास है । मुस्कान इस श्रद्धा को प्रकट करती है कि कोई चीज भगवान् के विरुद्ध खड़ी नहीं रह सकती और अन्त में हर चीज ठीक निकलेगी । २८ मई, १९५४
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तुम जितना अधिक वुड़बुड़ाओगे, तुम्हारे दुःख-दर्द उतने ही अधिक बढ़ेंगे ।
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अगर तुम जो हो उससे सन्तुष्ट नहीं हो तो भगवान् की सहायता का लाभ उठाकर अपने-आपको बदलो । अगर तुम्हारे अन्दर बदलने का साहस नहीं है तो अपनी नियति के आगे झुक जाओ और चुप रहो ।
लेकिन त्पुम जिन परिस्थितियों में हो उनके बारे में हमेशा शिकायत करते रहना और उन्हें बदलने के लिए कुछ न करना तुम्हारे समय और तुम्हारी ऊर्जा की बरबादी है ।
कठिनाइयां तभी गायब हो सकती हैं जब कामनाओं और सुविधाओं पर अहंकारमूलक एकाग्रता गायब हो जाये । १२ मार्च, १९५८ २४५ |